लालाजी ज़रा सो रहे थे
- salil05
- May 2
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पेट अपने तले दबाए
लार ढेर मुख से टपकाए
स्वपनों की रंगीन रचनाओं से
कभी डर रहे थे, उनमें
कभी खो रहे थे
लालाजी ज़रा सो रहे थे
देखा भी तो क्या देखा
दुकान में आग की लपटें थीं
लालाजी भीतर झपटे थे
सबने उनको रोका था
वे धन के आगे बहरे थे
लालाजी ज़रा सो रहे थे
बस इसी स्वप्न की देरी थी
समस्या बड़ी गहरी थी
अगले ही दिन पानी के डोल रखे
मिट्टी के घड़े भरपूर रखे
कुछ पास रखे कुछ दूर रखे
प्रश्न से पहले जवाब हो रहे थे
लालाजी ज़रा सो रहे थे
पिछले सपने से लाला जीता था
अभी एक साल ही बीता था
नया सपना नया झंझट लाया
खरीदा इन्होंने पपीता था
संभाले संभालते पैर मुड़ा
चप्पल के टुकड़े हो रहे थे
लालाजी ज़रा सो रहे थे
बस वह दिन था और आज दिन है
सपने का इनपर प्रभाव बड़ा
घर में पपीतों का अभाव पड़ा
अब इतना बड़ा जो पेट भला
बस एक स्वप्न से कहाँ भरा
सपनों के डेरे हो रहे थे
लालाजी ज़रा सो रहे थे
ये सिलसिला कुछ साल चला
हर साल नया एक रोग चढ़ा
कभी इनकी कुर्सी ने जवाब दिया
कभी बेटे ने
लाला था सपनों के लपेटे में
बाप ने बेटे पे ज़ोर दिखाया
अपने लिए नई कुर्सी ले आया
हर मुश्किल के समाधान हो रहे थे
लालाजी ज़रा सो रहे थे
एक दिन लालाजी ने तरबूज़ खरीदा
अब एक ओर थी लालाजी की पुरानी चप्पल
दूसरी तरफ तरबूजों जैसे लालाजी
मिट्टी के घड़े कुछ साबुत कुछ फूटे
पानी के प्यासे डोल, कौओं के झूठे
वही पुरानी बिजली की तारें
लालाजी ने पेट से अपने
कई कुर्सियों के पेच बिगाड़े
बीत रही थी मार, दहाड़, फटकार
घर में दिल खट्टे हो रहे थे
लालाजी ज़रा सो रहे थे

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