कुछ पन्ने – ग़ज़ल
- salil05
- May 2
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कुछ पन्ने कभी ऐसे भी लिखे हैं मैने
जो फटते भी नहीं हैं, मिटते भी नहीं
पिंजरे में बंद मेरे कुछ टुकड़े पड़े हैं
जो दिखते तो हैं, मुझमें मिलते नहीं
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यादों को शायद भुला सकते होंगे
लकीरें को आधा मिटा सकते होंगे
पूरे ही खत्म होते हैं वजूद
आधे बचते नहीं, आधे बचते नहीं
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मेरा जो ना था, मैंने वो खो दिया
सज़ा ली है मैंने, गुनाह नहीं किया
अब तो लगती हैं टीसें रह रह के
अब तो लगने से ठोकर, भी लगती नहीं
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बागों की कलियां, अब खिलती नहीं
ये नमकीन बूँदों से खुलती नहीं
आयेगी बसंत सबसे ये कहता हूँ मैं
दिल को मालूम है, के ये सच ही नहीं
कुछ पन्ने कभी ऐसे भी लिखे हैं मैने
जो फटते भी नहीं हैं, मिटते भी नहीं

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