कँवल
- salil05
- May 2
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इश्क़ के इस गुल्सितां में
है न जाने कितने रंग
कोई इतरे महकने पे
कोई ठग लेता है मन
में नहीं क्यारी का जन्मा
न नसीब-ए-बाग़बां
तेरी आतिश से बना हूँ
तुझमें ही मैं हूँ मलंग
तुम कहा करते थे के
मैं दलदलों का पीर हूँ
यूं हंसा करते थे मुझपे
जैसे मैं फ़कीर हूँ
जो लगा है इश्क़ में
खुद-ब-खुद जाता संवर
आग है इस गुल्सितां में
आग है अब गुल्सितां में
और मैं खिलता इक कँवल

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